“मूत्र के रोग” (Mutra Ke Roga) का आयुर्वेदिक चिकित्सा में महत्वपूर्ण स्थान है। ये रोग मूत्र प्रणाली से संबंधित होते हैं, जिसमें गुर्दे, मूत्रवाहिनी, मूत्राशय और मूत्रमार्ग शामिल हैं। आयुर्वेद में मूत्र के रोगों को “मूत्रविकार” कहा जाता है। इनमें विभिन्न प्रकार के रोग शामिल होते हैं, जैसे मूत्रकृच्छ्र (डिस्यूरिया), मूत्राघात (रुकावट), अश्मरी (पथरी), प्रमेह (मधुमेह से संबंधित रोग), आदि।
आयुर्वेद के अनुसार, मूत्र के रोगों का कारण वात, पित्त और कफ दोषों का असंतुलन होता है। इन दोषों के असंतुलन से शरीर की मूत्र प्रणाली प्रभावित होती है और विभिन्न प्रकार के मूत्रविकार उत्पन्न होते हैं।
मूत्र के रोगों के कुछ प्रमुख लक्षण और उनके उपचार आयुर्वेद में इस प्रकार वर्णित हैं:
- मूत्रकृच्छ्र (डिस्यूरिया):
- लक्षण: पेशाब करते समय दर्द और जलन।
- उपचार: गुड़ुची, गोक्षुर, और वरुण जैसी जड़ी-बूटियों का उपयोग। ठंडे पानी का सेवन और ताजगी देने वाले पेय पदार्थों का सेवन।
- मूत्राघात (रुकावट):
- लक्षण: पेशाब में कठिनाई या पूरी तरह से रुकावट।
- उपचार: पाषाणभेद, गोक्षुर और पुनर्नवा जैसी औषधियों का उपयोग। इसके अलावा, मूत्रल (मूत्रवर्धक) औषधियों का सेवन।
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