आयुर्वेदीय रसशास्त्र का उद्भव एवं विकास
आयुर्वेदीय रसशास्त्र आयुर्वेद की एक महत्वपूर्ण शाखा है, जो धातुओं, खनिजों, और अन्य प्राकृतिक पदार्थों का औषधीय उपयोग करती है। यह शास्त्र रसायन विद्या (alchemy) पर आधारित है और इसे आयुर्वेद में महर्षि नागार्जुन ने विशेष रूप से विकसित किया।
उद्भव (Origins):
- प्राचीन काल: आयुर्वेद का उद्भव हजारों साल पहले हुआ और इसमें विभिन्न प्राकृतिक औषधियों का उपयोग किया जाता था। धातुओं और खनिजों का उपयोग भी प्रारंभिक समय से होता आया है।
- महर्षि नागार्जुन: रसशास्त्र का विधिवत अध्ययन और उपयोग महर्षि नागार्जुन (7वीं-8वीं सदी) के समय में प्रारंभ हुआ। उन्होंने धातुओं और खनिजों को शुद्ध करने और औषधियों के रूप में उपयोग करने की विधियाँ विकसित कीं।
- रसग्रंथों की रचना: नागार्जुन और उनके शिष्यों ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे जैसे कि ‘रस रत्नाकर’, ‘रसार्णव’, और ‘रसेंद्र चूड़ामणि’।
विकास (Development):
- धातुओं का शोधन और मर्दन: रसशास्त्र में धातुओं और खनिजों को शुद्ध करने की विधियाँ विकसित की गईं, जिन्हें शोधन और मर्दन कहते हैं। इन प्रक्रियाओं के माध्यम से धातुओं के विषाक्त तत्वों को दूर कर उन्हें औषधीय रूप में परिवर्तित किया जाता है।
- भस्म निर्माण: धातुओं और खनिजों को विशेष प्रक्रिया से भस्म में परिवर्तित किया जाता है, जो कि शरीर में आसानी से अवशोषित हो सके। स्वर्ण भस्म, रजत भस्म, और लौह भस्म इसके उदाहरण हैं।
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