अर्कप्रकाश: (Arka Prakash) अर्कप्रकाश में भारतीय जड़ी-बूटियों के अर्क द्वारा सभी रोगों की चिकित्सा का वर्णन है। प्रत्येक रोग पर विविध जड़ी-बूटियों के अर्क द्वारा चिकित्सा का निरूपण किया गया है। अर्क-चिकित्सा की परम्परा बहुत पुरानी है, यह ग्रन्थ के अध्ययन से प्रतीत होता है। इससे यह निर्णय किया जा सकता है कि रावण के समय में भी अर्क-चिकित्सा का प्रभाव या। यहाँ पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय है कि यदि त्रेतायुग में उत्पन्न राम के समकालीन रावण को लिया जाय तो उस समय से यह चिकित्सा-प्रणाली पूर्ण विकसित हुई और वह परम्परा कुछ छिन्न-भिन्न होती-सी अब भी चल रही है।
प्राचीन काल में इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करने वाले बाँसबरेली के निवासी श्री पं० मुकुन्दरामजी हैं परन्तु उन्होंने न तो अपना पूर्ण परिचय दिया है और न ही जन्मकर्ता के सम्बन्ध में कोई संकेत किया है। जो भी हो, किन्तु यह अर्क-चिकित्सा यूनानी चिकित्सा की पारम्परिक जननी है। इसके ऊपर विशेष अन्वेषण की आवश्यकता है। आयुर्वेद के बृहत् इतिहास में अर्कप्रकाश को रावणकृत होना ही उसका समय सोलहवीं शताब्दी का संकेत है।
इस ग्रन्थ में सभी द्रव्यों का अर्क प्रणाली से चिकित्सा का विधान किया गया है। किस द्रव्य का अर्क किस रोग पर प्रभावकारी है, इसका निरूपण किया गया है। कहीं- कहीं औषध के रूप में, कहीं-कहीं अनुपान के रूप में चिकित्सा प्रदशित की गई है। इस ग्रन्य में बने अर्क की ही प्रक्रिया से मारण, मोहन, वशीकरण आदि आभिचारिक क्रियाओं का वर्णन एवं रस तथा धातुओं का शोधन-मारण का प्रकार विविश्व अर्को से किया गया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ अपने में संयोजित विषयों के द्वारा आयुर्वेद जगत् का सहज उपकारक है तथा रससिद्ध वैद्यों के लिये माननीय है। अर्कप्रकाश के प्रकरण का विभाजन शतक के नाम से किया गया है।
प्रथम शतक में रावण-मन्दोदरी का संवाद, ओषधियों का प्रकार, लक्षण, ब्राह्य अंग, रस एवं उनके गुणों का वर्णन है। पाँच प्रकार के औषध कल्पों का वर्णन, अर्क की प्रशस्ति तथा अर्क निकालने के विविध प्रकारों का वर्णन है।
द्वितीय शतक में पञ्चवविध ओषधियों का वर्णन । अर्क के लिये ग्रहण करने की मात्रा, फल-पुष्पादि के अर्क निकालने की विधि, विविध वर्गों की ओषधियों के नाम, मञ्च निर्माण विधि आदि का भी वर्णन है।
तृत्तीय शतक में ओषधियों के अर्क के गुण का निरूपण किया गया है। इसमें सभी ओषधियों के अर्क का प्रयोग रोगों के अनुसार किया गया है।
चतुर्य शतक में षड्रस का वर्णन है तथा धान्यवर्ग, पशुवर्ग, मधुवर्ग, पक्षिवर्ग, मत्स्यवर्ग एवं मनुष्य के मांसों के अर्क का गुण तथा ऋतुओं के अनुसार अर्क सेवन विधि का वर्णन है।
पन्चम शतक में रोगों के अनुसार जड़ी-बूटियों के अर्क की चिकित्सा का निरूपण है। जैसे-ज्वरस्तम्भक अर्क, ज्वरहर अर्क, सन्निपातहर अर्क, ग्रहणी प्रवाहिकानाशक अर्क आदि।
षष्ठ शतक में गलगण्ड, गण्डमाला, ग्रन्यि रोग, अर्बुद आदि शल्यसम्बन्धी रोगों की चिकित्सा की विधि विविध अर्को द्वारा बताई गई है।
सप्तम शतक में अर्क द्वारा इन्द्रलुप्त, दारुणक, अरुंषिका, गुदकण्डू, गुदभ्रंश आदि रोगों की चिकित्सा का वर्णन है।
अष्टम शतक में अर्क द्वारा वशीकरण, विद्वेषीकरण, उच्चाटीकरण, शत्रुपराजय- करण, मारण, मोहनकरण, अदृश्यकरण तथा बुद्धिभ्रंशकरण आदि आभिचारिक क्रिया विधि का वर्णन है।
नवम शतक में नाड़ीपोषक औषध अर्क, नेत्र के लिये हितकर ओषधियों का अर्क, लवण क्षारादिगण का अर्क एवं सभी प्रकार के ओषधि वर्ग की ओषधि के द्वारा रोग का वर्णन है।
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