**”लौकिकन्यायशास्त्रार्थकला तथा कूटशास्त्रार्थकला”** एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसकी रचना श्री वेणिमाधव शास्त्री ने की है। यह ग्रंथ भारतीय न्याय और कूटशास्त्र के गहन अध्ययन और विवेचना पर आधारित है। इस ग्रंथ में प्राचीन भारतीय न्यायशास्त्र की अवधारणाओं और सिद्धांतों का विश्लेषण किया गया है और उन्हें आधुनिक संदर्भों में व्याख्या की गई है।
### मुख्य विशेषताएँ:
1. **न्यायशास्त्र की गहन विवेचना**: इस ग्रंथ में प्राचीन भारतीय न्यायशास्त्र की विभिन्न धाराओं और उनके सिद्धांतों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है।
2. **कूटशास्त्र की अवधारणाएँ**: इसमें कूटशास्त्र, यानी राजनैतिक और सामरिक रणनीतियों के सिद्धांतों को भी विस्तार से समझाया गया है।
3. **शैक्षिक और अनुसंधानात्मक दृष्टिकोण**: यह ग्रंथ न्याय और कूटशास्त्र के विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं के लिए अत्यंत उपयोगी है, क्योंकि इसमें गहन शोध और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है।
4. **भारतीय परंपरा और आधुनिकता का समन्वय**: इस ग्रंथ में प्राचीन भारतीय सिद्धांतों को आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह वर्तमान समय में भी प्रासंगिक बना हुआ है।
### लेखक परिचय:
**श्री वेणिमाधव शास्त्री** एक प्रतिष्ठित विद्वान और न्यायशास्त्र के विशेषज्ञ थे। उन्होंने भारतीय न्यायशास्त्र और कूटशास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी रचनाएँ आज भी अध्ययन और अनुसंधान के लिए मानक मानी जाती हैं।
यह ग्रंथ न्याय और कूटशास्त्र के अध्ययन में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिए एक अमूल्य संसाधन है। अधिक जानकारी और अध्ययन के लिए, आप [Internet Archive](https://archive.org) जैसे संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं, जहां आपको इस ग्रंथ के कई संस्करण और टिप्पणियाँ मिल सकती हैं【27†source】【28†source】।
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